hare krishna # हरे कृष्

कौन क्या कर रहा है
कैसे कर रहा है...
क्यों कर रहा है...
इन सब से आप जितना दूर रहेंगे 
उतना ही हरि के करीब रहेंगे... भरत को राम के चरणों में ऐसे बेसुध पड़ा देखकर लक्ष्मण के जी में धक्क से हो गया। राम भरत को उठाने की चेष्टा में लगे थे और भरत थे कि राम के चरण ही नही छोड़ रहे थे। बस "भैया मुझे क्षमा कर दो, मुझे कभी अपने से अलग मत करना भैया", ऐसे ही द्रवित करने वाले वाक्य बोलकर विलाप करते जा रहे थे। 

ये बात तब की है जब भरत अयोध्या की सारी प्रजा समेत श्रीराम को मनाने गए थे।

उन्हें ऐसे देखकर लक्ष्मण के नेत्रों से न जाने कब नीर की धाराएं बहने लगीं। "हे महादेव! मैंने यह क्या सोंच लिया था भरत भैया के लिए?"

उन्हें अपने विचारों से घृणा होने लगी कि उन्होंने भरत के लिए क्या कुछ गलत नही सोंच लिया था। लक्ष्मण, श्रीराम के चरणों में विलाप करते भरत को देख कर अपने मन में बार बार अपने आपको धिक्कारते हैं कि कैसे वे कुछ देर पहले अपने बड़े भाई को सत्ता के लोभी कह रहे थे।  कैसे वे भरत और शत्रुघ्न को सत्तालोलुप, लोभी और भ्रातहंता समझ रहे थे। कैसे वे अपने ही बड़े भाई से युद्ध करने को तैयार हो गए थे और इस सीमा तक कि यदि महादेव भी उनके पक्ष में होते तो वे उनसे भी लड़ने को तत्पर थे। 

भले ही लक्ष्मण का अंतर्मन उन्हें बार बार यह कह रहा था कि उनके विचार राम भैया के प्रति उनके प्रेम के परिचायक मात्र थे और कुछ नही। परंतु यह बात लक्ष्मण को संतुष्ट ही नही कर पा रही थी। 

वे बारम्बार अपने आपको कोस रहे थे कि आखिर क्यों वे अपने ही बड़े और छोटे भाई को समझ नही सके? क्यों उन्होंने एक बार भी यह नही सोंचा कि भरत भैया, राम भैया को मनाने भी आ सकते हैं? क्यों उन्होंने भरत भैया पर विश्वास नही  किया, जिस तरह राम भैया, भरत भैया पर करते हैं? आखिर क्यों?

अपने इसी अपराध बोध के तले लक्ष्मण दबने लगे और जब वे भरत से मिलने पहुँचे तो वे भरत के चरण पकड़ कर रोने ही लगे। भरत ने उन्हें उठाकर अपने हृदय से लगाया और कहा, "विलाप क्यों करते तो लक्ष्मण, अब मैं आ गया हूँ न, देखना राम भैया और भाभी को घर वापस लेकर ही जाऊंगा। तुम परेशान मत हो बेटा, राम भैया मेरी बात कभी टाल नही पाएंगे।"

भरत की ऐसी प्रेम भरी बातों से लक्ष्मण स्वयं को और कोसने लगे कि हाय, अपने देवता तुल्य भाई को मैंने क्या समझ लिया था। 

जितने दिन भरत वहाँ रहे, लक्ष्मण को यह अपराध बोध सताता रहा। वे जितना भरत को श्री राम को अयोध्या ले जाने के लिये मनाते हुए देखते, उतना ही अपने विचारों पर दुखी होते।

प्रभु श्रीराम की दृष्टि से लक्ष्मण की यह दशा छुपी न थी। भरत के लौटने से पहली रात को उन्होंने लक्ष्मण से पूछ ही लिया, "लक्ष्मण, क्या बात है? विगत कुछ दिनों से तुम काफी बेचैन दिख रहे हो, क्या हुआ?"

और फिर लक्ष्मण ने अपने भगवान से अपना सारा अंतर्द्वंद कह डाला।

राम मुस्कुराए, "अजीब बात है कि पूरी धरती का बोझ उठाने वाला मेरा लक्ष्मण आज अपने विचारों के बोझ तले ही दबकर रह गया है।"

"भैया, मुझे राह दिखाइए।  मुझे बताइये कि मैं कैसे इस अंतर्द्वंद से बाहर निकलूँ? मेरा पथ प्रदर्शित कीजिये भैया।"

"यदि इस अंतर्द्वंद से बाहर निकलना है तो जाओ और भरत को जाकर सब बता दो, उससे बात करके ही तुम इस अंतर्द्वंद से बाहर निकल निकल सकते हो", लक्ष्मण के सिर पर हाथ फेरते हुए श्रीराम ने उन्हें उपाय सुझाया।

"भैया, मुझे क्षमा कर दीजिए, मैं दुष्ट हूँ, पापी हूँ। मैंने आपके विषय में न जाने क्या क्या अनर्गल विचार कर लिए थे। मुझे लग रहा था कि आप यहाँ राम भैया की हत्या करने आ रहे हैं ताकि सारे कंटकों को हटा कर आप निर्विघ्न राज्य कर सकें। मैं कितना गलत था भैया, मैने अपने देवता तुल्य भाई के लिए ये क्या सोंच लिया था। मैं आपसे युद्ध तक करने को तत्पर था भैया। मुझे क्षमा कर दीजिए भैया, मैं बहुत बुरा हूँ।", अगले दिन सुबह नित्य क्रियाओं तथा स्नान पूजनादि के पश्चात एकांत में लक्ष्मण ने भरत के चरण पकड़ कर अपने आंसुओं के साथ अपना अंतर्द्वंद भी उनके चरणों में रख दिया। 

भरत के होंठों पर एक मनमोहक स्मित विराजमान हो गयी। उन्होंने लक्ष्मण को उठाते हुए कहा, "तू बहुत भाग्यशाली है रे लक्ष्मण! राम भैया के लिए कितना प्रेम है तेरे हृदय में! तभी तो तू उनके सानिध्य में है। मेरे भाई, काश मैं भी तेरे जितना प्रेम कर पाता। भैया के प्रति तेरी श्रद्धा, तेरा समर्पण वंदनीय है रे। कभी कभी मुझे तेरे इस प्रेम से ईर्ष्या होती है रे। कितना कोमल हृदय है तेरा! तुझको बिल्कुल भी परेशान होने की आवश्यकता नही है। तेरे विचार बिल्कुल भी गलत नही थे। यदि मैं भी तेरे स्थान पर होता तो ऐसे ही विचार करता। बल्कि अब यह सुनकर मेरे हृदय में संतोष है कि जब तक तू है राम भैया और सीता भाभी को कोई कष्ट हो ही नही सकता। मेरे भाई, तेरी ये बातें सुनकर मेरा तुझपर स्नेह और भी बढ़ गया है। तू और शत्रुघ्न तो मेरे हृदय के दो भाग हैं तथा राम भैया मेरी आत्मा हैं। मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूँ लखन। अब मैं शांति से बिना किसी चिंता के  वापस जा सकता हूँ।"
                       राघव शुक्ला जी के सौजन्य से....
यह कहकर भरत ने लक्ष्मण को अपने हृदय से लगा लिया।                                  shayaripub.com 
         


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