गोवर्धनाददूरेण वृन्दारण्ये सखीस्थले।
प्रवृत्तः कुसुमाम्भोधौ कृष्णसंकीर्तनोत्सव।
वृषभानुसुताकान्तविहारे कीर्तनश्रिया।
साक्षादिव समावृते सर्वेअनन्यदृशोअभवन।।
ततः पश्यत्सु सर्वेषु तृणगुल्मलताचयात्।
आजगामोद्द्धवः स्र्र्वी श्यामः पीताम्बरावृतः।।
गुञ्जामालाधरो गायन् वल्लवीवल्लभं मुहुः।
तदागमनतो रेजे भृशं सड्डीतनोत्सवः ॥
चन्द्रिकागमतो यद्धत् स्फाटिकाट्टालभूमणि: ।
अथ सर्व सुखाम्भोधौ मग्नाः सर्व विसस्मरू:।।
गोवर्धनके निकट वृन्दावनके भीतर कुसुमसरोवरपर जो सखियोंकी विहारस्थली है, वहाँ ही श्रीकृष्णकीर्तनका उत्सवआरम्भ हुआ। वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाजी तथा उनके प्रियतम श्रीकृष्णकी वह लीलाभूमि जब साक्षात् संकीर्तनकी शोभासे सम्पन्न हो गयी, उस समय वहाँ रहनेवाले सभी भक्तजन एकाग्र हो गये; उनकी दृष्टि, उनके मनकी वृत्ति कहीं अन्यत्र न जाती थी।
तदनन्तर सबके देखते-देखते वहाँ फैले हुए तृण, गुल्म और लताओंके समूहसे प्रकट होकर श्रीउद्धवजी सबके सामने आये।
उनका शरीर श्यामवर्ण था, उसपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। वे गलेमें वनमाला और गुंजाकी माला धारण किये हुए थे तथामुखसे बारम्बार गोपीवल्लभ श्रीकृष्णकी मधुर लीलाओंका गान कर रहे थे। उद्धवजीके आगमनसे उस संकीर्तनोत्सवकी शोभाकई गुनी बढ़ गयी। जैसे स्फटिकमणिकी बनी हुई अट्टालिकाकी छतपर चॉदनी छिटकनेसे उसकी शोभा बहुत बढ़ जाती है।
उस समय सभी लोग आनन्दके समुद्रमें निमग्न हो अपना सब कुछ भूल गरये, सुध-बुध खो बैठे।
[ श्रीमद्वागवत-माहात्म्य|
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