🌺🌺🌺🌺'श्रीभुशुण्डि-गरुड़-संवाद' (द्वितीय प्रसंग🌺🌺🌺
🌷🌷🌷🌷हरिमाया जिमि भुसुंडि नचावा'🌷🌷🌷🌷
'भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कलप सत एका।।
फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गँवाएउँ।।
निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ। निरभर प्रेम हरषि उठि धायउँ।।'
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{अनेक ब्रह्माण्डों में भ्रमते-फिरते मुझे मानो एक सौ (अथवा एक सौ एक) कल्प बीत गये। फिरता-फिरता मैं अपने आश्रम में आया और वहाँ फिर रहकर कुछ समय बिताया। अवध में अपने प्रभु का जन्म सुन पाया तब परिपूर्ण प्रेम से हर्षपूर्वक मैं उठ दौड़ा।}
'बीते मनहुँ' का भाव यह है कि सच में ऐसा नहीं था, माया से ऐसा लगा कि इतने कल्प बीत गये। मन का ही वेग इतना बड़ा होता है कि उसमें वर्ष-के वर्ष क्षणमात्र में बीत जाते हैं और यहाँ तो माया का प्रबल वेग था। इसीतरह हर्ष में भी तो बहुत अधिक समय भी एक क्षण के समान बीत जाता है और दुःख में एक-एक क्षण भी कल्प के समान बीतता है।
फिर श्रीभुशुण्डिजी महाराज अपने आश्रम आये। यहाँ भी माया का खेल ऐसा था कि कुछ ही समय रहने पर फिर प्रभु का जन्म सुना मानो एक कल्प बीत गया। इस समय जब श्रीभुशुण्डिजी आश्रम में थे तब इन्हें विश्राम नहीं मिला था, चिन्ता और बेचैनी बनी रही थी। पहले की तरह कथा-पूजा-ध्यान आदि नहीं हो पाये थे इसीलिए इन्होंने 'काल गँवाएउँ' अर्थात् जैसे-तैसे समय बिताना (व्यर्थ गँवाना) कहा है।
यहाँ एक विलक्षण बात भी देखने को मिलती है कि मोह होने पर भी श्रीभुशुण्डिजी की अनन्य उपासना दृढ़ बनी रही। इसीलिए इन्होंने कहा था कि 'सो माया न दुखद मोहि काहीं'। श्रीनारदजी मोह में उपासना के प्रतिकूल कर्म कर बैठे थे जब उन्होंने अपने इष्टदेव को कठोर दुर्वचन बोल दिये थे। पर श्रीभुशुण्डिजी मोह में पड़कर भी अपने इष्टदेव के प्रेम में हैं । ये माया के चक्कर में तो है पर प्रेम में जरा सी भी कमी नहीं आयी है, माया में भी जब अपने प्रभु का अवतार लेना सुनते हैं तो पूर्वोत्साह से श्रीअवधधाम को दौड़ पड़ते हैं। जैसे किसी की किसी के प्रति ऐसी निष्ठा होती है कि सोते हुए भी उसे भूल नहीं पाता है वैसे ही माया के वश होते हुए भी श्रीभुशुण्डिजी अपने इष्टदेव की उपासना को नहीं भूले।
🌷जय सियाराम🌷
हिन्दी शायरी दिल से
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