जय सियाराम

                   भूरी बाई  जी 

 भूरी बाई का जन्म  राजसमन्द जिले के सरदारगढ़ में माँ केशर बाई और पिता रूपा जी सुथार के घर आषाढ़ शुक्ला 14 को 1943 में  हुआ था। 
उनका विवाह तेरह साल की आयु में एक अधेड़ उम्र के चित्रकार के साथ हो गया।  बाद में बीमारी से उनके पति का देहावसान हो गया। बस इस घटना ने भूरी बाई के गृहस्थ जीवन में भूचाल खड़ा कर दिया। भूरी बाई इस त्रासदी से धीरे-धीरे उभरी तो थीं लेकिन इस बार उनका झुकाव भक्ति मार्ग की ओर हो गया। 
इस बीच उन्होंने बिना शास्त्रों के अध्ययन के आत्म मंथन किया और इसके मखन यानी गूढ़ रहस्य को जन-जन तक वितरित किया। बाद में वो "महात्मा भूरी बाई अलख" के नाम से जगत विख्यात हुई। 

एक अनपढ़ महिला के तत्व ज्ञान को समझने संत सनातन देवजी, अनेक दार्शनिक, ज्ञानी, महात्मा, भक्त, कई रियासतों के ठाकुर से लेकर साधारण लोग आने लगे। वे अद्वेत की परम समर्थक थीं। बाई तो दार्शनिक चर्चा में भी विश्वास नहीं करती। वे सबको कहती-
चुप रहो। बोलो मत। ईश्वर की ब्रह्मनाद को महसूस करो। सब लड़ाई की जड़ ये जीभ है। कहते है एक बार श्रीजी की नगरी यानी नाथद्वारा स्थित आश्रम में बाई को मीठा खाने की तलब लगी। मिठाई की सुंध उनके नथुनों में खलबली मचाने लगी। फिर क्या एक भक्त को बुलाकर गाय का गोबर मंगवाया और उसको खाने लगी। बाई को ये सब करते देख एक सेवक ने पूछा कि बाई ये क्या कर रहे हो तो उन्होंने जबाव दिया कि आज ये मिठाई मांग रही है। कल नजाने क्या मांगेगी। फिर मुझसे क्या-क्या करवाएगी। इसलिए मैं इसका इलाज कर रही हूं। ताकि दुबारा  जुबान कुछ अंट सँठ मांगने से पहले दस बार सोचे।

 उनका सभी को एक ही निर्देश था चुप रहो। कुछ करो मत सिर्फ उसे ध्याओ, उसमें रमो, उसको भजो। बाकी सब व्यर्थ है। उनकी ज्ञान की प्रसिद्धि पाकर उस समय के सबसे बड़े चिंतक, दार्शनिक और गुरु ओशो मिलने आते थे। पाली जिले के पास मुछाला महावीर में ओशो गर्मी की छुट्टियों में शिविर में हिस्सा लेने आते। तब भूरी बाई के दर्शन जरूर करते। 
कहते ओशो जीवित रहते हुए सिर्फ बाई के शब्दों से नहीं जीत पाय। ओशो ने खुद कहा है वो बाई के भक्ति मार्ग के कायल है। हर बार आते तो ओशो के लिए भूरी बाई आम लाती। उन्हें अपने हाथों से खिलाती और फिर बचे हुए आम प्रसाद स्वरूप भक्तों में वितरित कर देती। एक बार सभी भक्तों ने बाई की शिकायत ओशो से की। 

भक्त बोले बावजी भूरी बाई को बोलो ये भी अपने तत्व ज्ञान के अनुभव की कुछ किताबें लिखे ताकि आने वाली पीढियां भी इस आनंद से लाभान्वित होवे। ओशो ने बाई को बुलाकर कहा-बाई कुछ क्यों नहीं लिखती हो। तो बाई ने काफी समझाने के बाद ओशो को अगले शिविर में कुछ लाने का वादा किया। अगले साल फिर शिविर लगा। ओशो आये। भूरी बाई आई तो ओशो दंग रह गया। एक लोहे की पेटी लेकर आई। ओशो के सामने रखी। ओशो को बोला बावजी  उद्घाटन आपके हाथों से ही होगा इसलिए आप ही पेटी से निकालो। ओशो ने पेटी खोली तो एक किताब थी। बाद में उसका नामकरण हुआ "काली पोथी"। किताब में कुछ नहीं था। पेन और पेंसिल की जगह कोयले से लिखी थी। बिल्कुल काली। हर पेज काला। न शब्द नजर आ रहे थे न अर्थ पता चल रहा था। अरे शब्द कैसे होंगे एक अनपढ़ महिला के पास। इसलिए कोयले से रंग दी पूरी किताब को। फ्रंट पेज पर लिखा था राम। विश्व चिंतक ओशो की दिमाग की बाती गुल हो गई। ओशो बोले  बाई ये क्या किया आपने। तो बाई बोली इसलिए नहीं लिख रहती थी इतने साल। मुझे पता है एक अनपढ़ का लिखा कहा भायेगा। ओशो ने कहा बाई कुछ तो लिखना था इसमें। यूँ ही काला करने को थोड़ी बोला। अगर ऐसा ही काला करना था तो यही बैठकर लिख लेतीं। बाई असहज होकर बोली बावजी ये सब मैंने अपने अनुभव से लिखा है। रोज लिखती। मंथन करती। लेकिन जो लिखा है वो अनपढ़े की भाषा है। अनपढ़े को थोड़ी पता रहता है शब्द कैसे लिखते है। आपने तो अनुभव लिखने को बोला। रोज इस पर लिखती गई। बस एक राम लिखना सीखी थी बचपन, वो उकेर दिया पहले पेज पर। ये सुनकर ओशो दंग रह गये। कहते है ओशो निशब्द हो गये। तो ऐसी थी मेवाड़ की मीरा भूरी बाई। उनकी मेवाड़ी शैली में ऊंची से ऊंची तत्व ज्ञान की बात करना गजब का कायल करने वाला था। इस महान विभूति ने 3 मई 1979  को इस असार संसार को अलविदा कह दिया। लेकिन आज भी उनके आश्रम में बाई को महसूस किया जा सकता है।

बाई सबको कहती कि-
चुप साधन चुप साध्य है, चुप में चुप समाय।
चुप समझारी समझ है, समझे चुप हो जाये।।
            साभार - श्याम भाई
            
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