भरत सरिस को रामसनेही जगु-जप राम रामु जप जेही।।
श्री भरत जी श्री राम जी के स्वरूप हैं यह व्यूहावतार माने जाते हैं। और उनका वर्ण ऐसा है कि
भरतु रामही की अनुहारी सहसा लखि न सकहिं नर नारी
विश्व का भरण पोषण करने वाले होने से ही उनका नाम भरत पड़ा है। धर्म के आधार पर सृष्टि है।
जौं न होत जग जन्म भरत को ।सकल धरम धुर धरनि भरत को
जन्म से ही भरत श्री राम के प्रेम की मूर्ति थे।
वे सदा श्रीराम के सुख और उनकी प्रसन्नता में प्रसन्न रहते थे ।
महुं स्नेह सकोच बस सन्मुख कहीं ना वैन
दरसन तृप्ति ना आजु लगि प्रेम पिआसे नैन।।
बड़ा ही संकोची स्वभाव था भरत लाल का अपने बड़े भाई के सामने भी संकोच की मूर्ति बने रहते थे ऐसे संकोची ऐसे अनुरागी भाई को जब पता लगा कि माता कैकई ने उन्हें राज्य देने के लिए श्री राम जी को वनवास दिया है तब उनको बहुत दुख हुआ ।
कैकई को उन्होंने बड़े कठोर वचन कहे परंतु ऐसी अवस्था में भी दयानिधि किसी को कष्ट नहीं देते हैं ।जिस मंथरा ने यह सब उत्पात किया था उसी को जब शत्रुघ्न दंड देने लगते हैं तो वे उसकी जान बचाते हैं ।अयोध्या का जो साम्राज्य देवताओं को भी लुभाता है उस राज्य को उस संपति को भरत ने तृण से भी तुच्छ मानकर छोड़ दिया।
वे बार-बार यह सोचते हैं श्री राम माता जानकी और लक्ष्मण अपने सुकुमार चरणों से वन के कठोर मार्ग में भटकते होंगे यही व्यथा उन्हें व्याकुल किए थी
वह भारद्वाज से कहते हैं.......
⚘राम लखन सिय बिनु पग पनहीं करि मुनि वेष फिरहिं बन बनहीं।। अजिन वसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बस तरु तर नित सहत हिम आते बरसात बात
एहि दुख दांह दहइ दिनछाती।भूख न बासर नीद न राती⚘
वे स्वयं मार्ग में उपवास करते कंदमूल खाते और भूमि पर शयन करते थे । साथ में घोड़े चलते थे किंतु भरत पैदल ही चलते थे उनके लाल-लाल कोमल चरणों में छाले पड़ गए थे ,किंतु उन्होंने सवारी अस्वीकार कर दी ।भरत का प्रेमभाव रामचरितमानस के अयोध्याकांड कांड में देखने योग्य है। ऐसा अलौकिक अनुराग कि जिसे देखकर पत्थर तक पिघल सकते हैं। कोई श्री राम कह दे कहीं श्री राम के स्मृति चिन्ह मिले किसी से सुन पड़े श्री श्रीराम का समाचार वहीं उसी से भरत व्याकुल होकर लिपट जाते थे।
हरषहिं निरखि रामपद अंका मानहुं पारसु पायउ रंका।।
रज सिर धरि हिंय नयनहिं लावहिं रघुवर मिलन सरिस सुख पावहिं
महर्षि भारद्वाज ने ठीक ही कहा है
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहु धरें देह जनु रामसनेहु
महाराजा जनक भरत जी के बारे में अपनी पत्नी सुनयना से कहते हैं
परमारथ स्वारथ सुख सारे भरत न सपनेहुँ मनहुं निहारे
साधन सिद्धि राम पग नेहु मोहिलखि परत भरत मत एहु
श्री राम क्या आज्ञा दें? वे भक्तवत्सल हैं। भरत पर उनका असीम स्नेह है ।वे भरत के लिए सब कुछ त्याग सकते हैं उन्होंने स्पष्ट कह दिया
मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहुं करौं सोइ आजु
परंतु धन्य है भरत लाल !धन्य है उनका अनुराग! जिसमें श्री राम की प्रसन्नता हो जो करने में रघुनाथ जी को संकोच ना हो वही उन्हें प्रिय है।उन्हें चाहे जितना कष्ट सहना पड़े किंतु श्री राम को तनिक भी संकोच नहीं होना चाहिए ।अतएव राम की प्रसन्नता के लिए उनकी चरण पादुका लेकर भरत अयोध्या लौट आए सिंहासन पर पादुकाएं पधरायी गयीं। राम वन में रहे और भरत राज सदन के सुख भोगें यह संभव नहीं _अयोध्या से बाहर नंदीग्राम में भूमि में गड्ढा खोदकर कुश का आसन बिछाकर भरत जी ने वहां पर तपस्वी का जीवन व्यतीत किया ।चौदह बर्ष उनकी अवस्था कैसी रही है गोस्वामी तुलसीदास जी बताते हैं
पुलक गात हिंय सिय रघुबीरू जीह नामु जप लोचन नीरू ।।
भरत जी ने इसी प्रकार अवधि के वे वर्ष बिताए। उनका दृढ़ निश्चय था
बीतें अवधि रहहिं जौ प्राना अधम कवन जग मोहि समाना
श्रीराम भी इसी इस बात को भलीभांति जानते थे उन्होंने विभीषण से कहा
बीतें अवधि जांउ जौं जिअत न पावउं वीर ।।
इसलिए रघुनाथ जी हनुमान जी को पहले ही भरत के पास भेज देते हैं ।जब पुष्पक विमान से राघवेंद्र आए उन्होंने तपस्या से कृश हुए जटा बढ़ाए अपने भाई को देखा उन्होंने देखा कि भरत जी उनकी चरण पादुका है अपने सिर पर रख कर आ रहे हैं ।
प्रेम व्याकुल राम ने भाई को हृदय से लिपटा लिया ।
तत्वतः भरत और श्री राम नित्य अभिन्न हैं।अयोध्या में या नित्य साकेत में भरत लाल सदा श्री राम की सेवा में सलंग्न उनके समीप ही रहते हैं ।
स्रोत.... कल्याण
सौजन्य. ...shayaripub.com
Achlaguleria@gmail.com
⚘राम लखन सिय बिनु पग पनहीं करि मुनि वेष फिरहिं बन बनहीं।। अजिन वसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बस तरु तर नित सहत हिम आते बरसात बात
एहि दुख दांह दहइ दिनछाती।भूख न बासर नीद न राती⚘
वे स्वयं मार्ग में उपवास करते कंदमूल खाते और भूमि पर शयन करते थे । साथ में घोड़े चलते थे किंतु भरत पैदल ही चलते थे उनके लाल-लाल कोमल चरणों में छाले पड़ गए थे ,किंतु उन्होंने सवारी अस्वीकार कर दी ।भरत का प्रेमभाव रामचरितमानस के अयोध्याकांड कांड में देखने योग्य है। ऐसा अलौकिक अनुराग कि जिसे देखकर पत्थर तक पिघल सकते हैं। कोई श्री राम कह दे कहीं श्री राम के स्मृति चिन्ह मिले किसी से सुन पड़े श्री श्रीराम का समाचार वहीं उसी से भरत व्याकुल होकर लिपट जाते थे।
हरषहिं निरखि रामपद अंका मानहुं पारसु पायउ रंका।।
रज सिर धरि हिंय नयनहिं लावहिं रघुवर मिलन सरिस सुख पावहिं
महर्षि भारद्वाज ने ठीक ही कहा है
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहु धरें देह जनु रामसनेहु
महाराजा जनक भरत जी के बारे में अपनी पत्नी सुनयना से कहते हैं
परमारथ स्वारथ सुख सारे भरत न सपनेहुँ मनहुं निहारे
साधन सिद्धि राम पग नेहु मोहिलखि परत भरत मत एहु
श्री राम क्या आज्ञा दें? वे भक्तवत्सल हैं। भरत पर उनका असीम स्नेह है ।वे भरत के लिए सब कुछ त्याग सकते हैं उन्होंने स्पष्ट कह दिया
मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहुं करौं सोइ आजु
परंतु धन्य है भरत लाल !धन्य है उनका अनुराग! जिसमें श्री राम की प्रसन्नता हो जो करने में रघुनाथ जी को संकोच ना हो वही उन्हें प्रिय है।उन्हें चाहे जितना कष्ट सहना पड़े किंतु श्री राम को तनिक भी संकोच नहीं होना चाहिए ।अतएव राम की प्रसन्नता के लिए उनकी चरण पादुका लेकर भरत अयोध्या लौट आए सिंहासन पर पादुकाएं पधरायी गयीं। राम वन में रहे और भरत राज सदन के सुख भोगें यह संभव नहीं _अयोध्या से बाहर नंदीग्राम में भूमि में गड्ढा खोदकर कुश का आसन बिछाकर भरत जी ने वहां पर तपस्वी का जीवन व्यतीत किया ।चौदह बर्ष उनकी अवस्था कैसी रही है गोस्वामी तुलसीदास जी बताते हैं
पुलक गात हिंय सिय रघुबीरू जीह नामु जप लोचन नीरू ।।
भरत जी ने इसी प्रकार अवधि के वे वर्ष बिताए। उनका दृढ़ निश्चय था
बीतें अवधि रहहिं जौ प्राना अधम कवन जग मोहि समाना
श्रीराम भी इसी इस बात को भलीभांति जानते थे उन्होंने विभीषण से कहा
बीतें अवधि जांउ जौं जिअत न पावउं वीर ।।
इसलिए रघुनाथ जी हनुमान जी को पहले ही भरत के पास भेज देते हैं ।जब पुष्पक विमान से राघवेंद्र आए उन्होंने तपस्या से कृश हुए जटा बढ़ाए अपने भाई को देखा उन्होंने देखा कि भरत जी उनकी चरण पादुका है अपने सिर पर रख कर आ रहे हैं ।
प्रेम व्याकुल राम ने भाई को हृदय से लिपटा लिया ।
तत्वतः भरत और श्री राम नित्य अभिन्न हैं।अयोध्या में या नित्य साकेत में भरत लाल सदा श्री राम की सेवा में सलंग्न उनके समीप ही रहते हैं ।
स्रोत.... कल्याण
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