शेषावतार लक्ष्मण जी


 
बंदउं लछमन  पद जलजाता ।।
सीतल सुबोध भगत सुखदाता।।

  श्रीराम के चतुर्भुज स्वरूप में से एक रुप लक्ष्मण जी का है। बाल्मीकि जी उन्हें
सहससीसु अहीसु महीधरु
कह कर भगवान शेष का अवतार है ।श्री राम की सेवा करना ही उनके जीवन का एकमात्र व्रत है। जब भी बहुत छोटे थे पलने में ही थे तभी से श्री रघुनाथ के अनुयायी हैं ।
विश्वामित्र यज्ञ रक्षा करने यह राम जी के साथ गए। तब बड़े भाई की संपूर्ण सेवा स्वयंकरते थे। रात्रि में जब दोनों भाई मुनि विश्वामित्र के चरण  दबा कर  उनकी आज्ञा से विश्राम करने आते हैं तब लक्ष्मण जी बड़े भाई के चरण  दबाते हैं।बहुत कहने पर सोने के लिए जाते थे। लक्ष्मण जी वैसे तो बड़े सुशील शांत  स्वभाव  के हैं परंतु कोई श्रीराम का किसी प्रकार के अपमान करें तो यह इनसे सहन नहीं होता फिर यह अत्यंत उग्र होते हैं और तब किसी को कुछ भी नहीं गिनते थे ।
जब जनकपुर में राजाओं के द्वारा धनुष ना उठने पर जनक जी ने कहा मैंने समझ लिया कि अब पृथ्वी में कोई वीर नहीं रहा तब कुमार लक्ष्मण को लगा कि इससे तो श्री राम के बल का भी अपमान होता है

वे यह सोचते ही उग्र हो उठे उन्होंने जनक जी को चुनौती देकर अपना शौर्य प्रकट किया इसी प्रकार जब परशुराम बिगड़ते डांटते आए तभी लक्ष्मण जी ने उनका दर्प सहा नहीं गया ।यह श्री राम जी को अपना स्वामी मानते थे सेवक के रहते स्वामी का तिरस्कार हो ऐसे सेवक को धिक्कार है ।परशुराम जी को इन्होंने उत्तर ही नहीं दिया उनकी उनको युद्ध की चुनौती तक दे डाली । जब उन्होंने सुना कि पिता ने माता केकई के कहने पर राम को बनवास देना निश्चित किया है तब का कैकई और राजा पर इन्हें बड़ा क्रोध आया परंतु श्रीराम की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी करना इन्हें अभीष्ट नहीं था। यदि राम जी बन जाते हैं तो लक्ष्मण कहां अयोध्या में रहने वाले हैं यह बात सभी जानते थे ।
जब प्रभु ने राजधर्म पिता माता की सेवा कर्तव्य समझा कर इन्हें रहने को कहा तब इनका मुख सूख गया व्याकुल होकर बड़े भाई के चरण पकड़ लिए और इन्होंने रोते रोते प्रार्थना की
गुरु पितु मातु न जानउं काहू
कहउं सुभाउ नाथ पतिआहू।।
जहं लगी जगत सनेह सगाई
प्रीति प्रतीति निगम  निजु गाई
मोरे सबइ एक तुम्ह स्वामी
दीन बंधु उर अंतरजामी।।
धर्म नीति उपदेसिअ ताही
कीर्ति भूति सुगति प्रिय जाही।।
मन क्रम वचन चरन रत होई ।
कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई।।

लक्ष्मणजी ने वन में सेवाव्रत लेकर भूख प्यास निद्रा थकावट आदि सब पर विजय प्राप्त कर ली ।वे सदा सावधान रहते थे मार्ग में चलते समय भी
सिय रामपद अंक बराएं।
लखन चलहिं मगु दाहिन लाएं

कहीं प्रभु के चरणों पर अपने पैर ना पड़ जाए इसके लिए वे सतत सावधान रहते थे। वनवास के समय भगवान ने स्वयं लक्ष्मण को अनेक बार ज्ञान वैराग्य भक्ति आदि के उपदेश किए हैं।
14 वर्ष के अखंड ब्रह्मचारी के बल पर ही यह मेघनाथ को युद्ध में जीत सके थे। श्री राम जी की आज्ञा से लक्ष्मण जी कठोर से कठोर कार्य को करने के लिए तैयार रहते थे ।सीता जी को वन में छुड़ाने का काम भरत और शत्रुघ्न जी ने स्पष्ट इंकार कर दिया लक्ष्मण जी के लिए यह हृदय पर पत्थर रखकर करने का काम था किंतु वे श्री राम की आज्ञा किसी प्रकार टाल नहीं सकते थे ।यह कार्य भी उन्होंने स्वीकार कर लिया।
श्रीराम एकांत में काल के साथ बात कर रहे थे उन्होंने यह निश्चय किया था कि इस समय यदि कोई यहां आ जाएगा तो उसे प्राण प्राण दंड दिया जाएगा लक्ष्मण जी को द्वार पर नियुक्त किया गया था ।उसी समय वहां दुर्वासा जी आए और तुरंत श्री राम को मिलने का आग्रह करने लगे ।
विलंब होने पर शाप देकर पूरे राजकुल को नष्ट कर देने की धमकी दी लक्ष्मण जी ने भगवान को जाकर संवाद सुनाया श्रीराम ने दुर्वासा जी का सत्कार किया ऋषि के चले जाने पर श्री रघुनाथ जी बहुत दुखी हुए ।प्रतिज्ञा के अनुसार लक्ष्मण जी को उसमें भीतर जाने के लिए प्राण दंड होना चाहिए था स्वामी को दुख ना हो उनकी प्रतिज्ञा रक्षित रहे इसलिए उन्होंने स्वयं मांग कर निर्वासन स्वीकार कर लिया क्योंकि प्रियजन का निर्वासन  प्राण दंड के समान होता है। इस प्रकार आजन्म श्री राम की सेवा करके श्रीराम के लिए उनका वियोग भी लक्ष्मण जी ने स्वीकार किया था।
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                            कल्याण के सौजन्य से
                        लेखिका अचलाएसगुलेरिया

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