तुम्हारी तमीज़ शायद सुन ना पाएगी
मेरा सच बदतमीज़ बहुत है।।
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किसी ने खूब लिखा है,सोचा आप तक पहुंचाऊं.....
ज़माने की रवायत को निभाना ही नहीं आता
मुझे चेहरे पे चेहरे को लगाना ही नहीं आता
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लबों पे उनके भी हमने यहां मुस्कान देखी है
मुकद्दर को जहाँ पर पेश आना ही नहीं आता
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मेरा हर दर्द चेहरे की लकीरों में नजऱ आये
बड़ा मज़बूर हूँ की सच छुपाना ही नहीं आता
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सियासत की सभी पेचीदगी हमको भि आती है
मगर कमज़र्फ बनकर मुस्कुराना ही नहीं आता
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बनाना चाहता है जो मुकामे दिल किसी तरहा
कदम उसको मुहब्बत का उठाना ही नहीं आता
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दिखाना आईना सबको बड़ा आसान होता है
मगर दागों से खुद दामन बचाना ही नहीं आता
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निगाहें देखती हैं जो वो अक्सर सच नहीं होता
कि पानी दूध से सबको हटाना ही नहीं आता
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उसी का ज़िक्र सुबहो शाम मेरे दिल की अंजुम में
जिसे मुझसे कभी नज़रें मिलाना ही नहीं आता
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कभी मजबूरियों में कीं कभी तो आदतन भी कीं
खतायें की बहुत लेकिन छुपाना ही नहीं आता
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फलक की चाह रखना गैर वाजिब तो नहीं लेकिन
ज़मी को भूल जाने से ठिकाना ही नहीं आता
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