emotional shayari

तुम्हारी तमीज़ शायद सुन ना पाएगी
मेरा सच बदतमीज़ बहुत है।।
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किसी ने खूब लिखा है,सोचा  आप तक पहुंचाऊं.....
 
ज़माने की रवायत को निभाना ही नहीं आता
मुझे  चेहरे पे चेहरे  को लगाना ही नहीं आता
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लबों पे उनके भी हमने  यहां मुस्कान देखी है
मुकद्दर को जहाँ पर पेश आना ही नहीं आता
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मेरा  हर दर्द  चेहरे की लकीरों  में नजऱ आये
बड़ा मज़बूर हूँ की सच छुपाना ही नहीं आता
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सियासत की सभी  पेचीदगी  हमको भि आती है
मगर कमज़र्फ  बनकर मुस्कुराना  ही नहीं आता
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बनाना  चाहता है  जो मुकामे दिल किसी तरहा
कदम उसको मुहब्बत का उठाना ही नहीं आता
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दिखाना आईना  सबको बड़ा  आसान होता है
मगर दागों से खुद दामन बचाना ही नहीं आता
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निगाहें देखती हैं जो वो अक्सर सच नहीं होता
कि पानी दूध से  सबको हटाना  ही नहीं आता
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उसी का ज़िक्र सुबहो शाम मेरे दिल की अंजुम में
जिसे  मुझसे  कभी नज़रें  मिलाना ही नहीं आता
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कभी मजबूरियों में कीं कभी तो आदतन  भी कीं
खतायें  की बहुत  लेकिन छुपाना  ही नहीं  आता
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फलक की चाह रखना गैर वाजिब तो नहीं लेकिन
ज़मी  को  भूल  जाने  से  ठिकाना  ही  नहीं  आता
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