मैं अनसुना करती हूं उस आवाज को हर दिन
वह टूटन असहज करती है मुझे मगर उसको लादे पीठ पर थक जाती हूं रुक जाती हूं फिर आगे की तरफ चल देती हूं हर दिन
आंसू बरबस आते हैं अपने हालात पर उन्हें हाथ में पकड़ कर मसलती हूं कुछ सोचती हूं फिर स्याही बना उड़ेल देती कागज पर हर दिन
बदल रहे दिन लोग शहर के शहर यह कौन बदल रहा ..और क्यूँ? बदलाव अच्छा भी हो तो खा जाता है उसको जो पुराना था पर अपना था यह मैं तन्हाई में सोचती हूं हर दिन
चेहरे पर लकीरें अनुभव की गहरी खाइयों की तरह घसीट रही हैं उन विचारों के भंवर में जहां डरते हैं अपनों से बिछड़ जाने से हर दिन
कोई पहले कोई बाद में जाने लगे हैं घर से चुपचाप उठकर किसी नए सितारों के शहर में बुरा लगता है बहुत बुरा लगता है फिर सोचती हूं मैं भी तो जाऊंगी ऐसे ही चुपचाप उठ कर एक दिन
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