*** मेरी कलम से *****
अपनी अपनी जंग को खुद ही लड़ना पड़ता है !
वक़्त से दो चार होना ही पड़ता है ।।
यादों के परिंदे जो चहकते हैं मुंडेर पर !
सब्र का दाना उन्हें खिलाना ही पड़ता है ।।
हिज्र का ये दोर भी कभी तो गुजर जाएगा !
मन को बार बार यह समझाना ही पड़ता है।।
धुंधली हो जाए जब उम्मीदों की चाँदनी !
तन को मीरा मन को मोहन बनाना ही पड़ता है ।।
यूँ ही नहीं फलता है सपनों का कोई चमन !
यहां जाड़े में भीगना, धूप में जलना ही पड़ता है ।।
................... रूमा गगन गुलेरिया.............
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें