ब्रह्मा जी के अंशावतार ऋक्षराज जामवंत
स्वारथ सांच जीव कहुं एहा ,मन क्रम वचन राम पद नेहा ।।
भगवान ब्रह्मा ने देखा कि सृष्टि के कार्य में लगे रहते पूरा समय भगवान की सेवा में नहीं दिया जा सकता अतः वह एक रुप से ऋक्ष राज जाम्बवान् होकर पृथ्वी पर आ गए ।
भगवान की सेवा भगवान के नित्य मंगलमय रूप का ध्यान भगवान की लीलाओं का चिंतन यही जामवंत की दिनचर्या थी
सतयुग में जब भगवान बामन ने विराट रूप धारण करके बलि को बांध लिया उस समय उस विराट रूप प्रभु को देखकर जामवंत जी बहुत आनंदित हुए ।
वे भेरी लेकर विराट भगवान का जयघोष करते हुए दिशाओं में सर्वत्र महोत्सव की घोषणा कर आए और दो घड़ी में ही दौड़ते हुए उन्होंने सात प्रदक्षिणाएं विराट भगवान की कर ली।
त्रेता में जामवंत जी सुग्रीव के मंत्री हो गए आयु ,बुद्धि, बल और नीति में सबसे श्रेष्ठ होने के कारण वे ही सब को उचित सम्मति देते थे।
वानर जब सीता को ढूंढने निकले और समुद्र के तट पर हताश होकर बैठ गए तब जामवंत जी ने ही हनुमान जी को उनके बल का स्मरण दिला कर लंका जाने के लिए प्रेरित किया भगवान श्री राम के युद्ध काल में तो जैसे यह प्रधान सचिव ही थे सभी कार्य में भगवान इनकी सम्मति लेते और इनका आदर करते थे। भगवान अयोध्या लौट आए और राज्य अभिषेक के बाद सब को विदा करने लगे तब जामवंत जी ने अयोध्या से जाना तभी सरकार किया जब प्रभु ने उन्हें द्वापर में दर्शन देने का वचन दिया ।
जामवंत जी की इच्छा थी कि कोई मुझे द्वंद युद्ध में संतुष्ट करे लंका के युद्ध में रावण भी उनके सम्मुख टिक नहीं सका था ।
द्वापर में श्री कृष्ण चंद्र का अवतार हुआ द्वापर में द्वारका आने पर यादव श्रेष्ठ सत्राजित जिसने सूर्य की आराधना करके स्यमन्तक मणि प्राप्त की।
एक दिन श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा कि वह मणि महाराज उग्रसेन को दे दें। किंतु लोभ वश सत्राजित ने यह बात स्वीकार नहीं की ।
संयोगवश उस मणि को गले में बांधकर सत्राजित का भाई प्रसेनजित आखेट के लिए वन में गया और वहां उसे शेर ने खा लिया।
शेर मणि लेकर गुफा में गया तो जामवंत जी ने शेर को मार कर मणि ले ली और गुफा के भीतर अपने बच्चों को खेलने के लिए दे दी।
द्वारका में जो प्रसेनजित नहीं लौटा तब सत्राजित को शंका हुई कि श्री कृष्ण चंद्र ने मेरे भाई को मारकर मणि छीन ली है ।
धीरे-धीरे यह बात फैलने लगी इस अपयश को दूर करने के लिए भगवान श्री कृष्ण मणि का पता लगाने निकले वह मरे घोड़े को फिर मृत सिंह को देखते हुए जामवंत की गुफा में पहुंचे एक अपरिचित पुरुष को देख बच्चे की धार मां चिल्ला उठी जामवंत उस चिल्लाहट को सुन क्रोध में भर दौड़े ।
कृष्ण के साथ उनका द्वंद युद्ध होने लगा था ।
सत्ताइस दिन रात बिना विश्राम कि ये दोनों एक-दूसरे पर वज्र के समान आघात करते रहे अंत में जामवंत का शरीर मधुसूदन के प्रहारों से शिथिल होने लगा
जामवंत जी ने सोचा मुझे पराजित कर सके ऐसा कोई देवता या राक्षस तो हो नहीं सकता अवश्य ही यह मेरे भगवान श्रीराम ही हैं।
वे यह सोचकर रुक गए भगवान ने उसी समय उन्हें अपने धनुषधारी राम स्वरूप का दर्शन दिया जामवंत जी प्रभु के चरणों में गिर पड़े। श्री कृष्ण चंद्र ने अपना हाथ उनके शरीर पर फेरकर समस्त पीड़ा और क्लेश दूर कर दिया जामवंत ने अपनी कन्या जामवंती को श्री कृष्ण के चरणों में समर्पित किया और वह मणि भी दे दी इस प्रकार उन्होंने अपने जीवन को भगवान के चरणों में अर्पित कर दिया
स्वारथ सांच जीव कहुं एहा ,मन क्रम वचन राम पद नेहा ।।
भगवान ब्रह्मा ने देखा कि सृष्टि के कार्य में लगे रहते पूरा समय भगवान की सेवा में नहीं दिया जा सकता अतः वह एक रुप से ऋक्ष राज जाम्बवान् होकर पृथ्वी पर आ गए ।
भगवान की सेवा भगवान के नित्य मंगलमय रूप का ध्यान भगवान की लीलाओं का चिंतन यही जामवंत की दिनचर्या थी
सतयुग में जब भगवान बामन ने विराट रूप धारण करके बलि को बांध लिया उस समय उस विराट रूप प्रभु को देखकर जामवंत जी बहुत आनंदित हुए ।
वे भेरी लेकर विराट भगवान का जयघोष करते हुए दिशाओं में सर्वत्र महोत्सव की घोषणा कर आए और दो घड़ी में ही दौड़ते हुए उन्होंने सात प्रदक्षिणाएं विराट भगवान की कर ली।
त्रेता में जामवंत जी सुग्रीव के मंत्री हो गए आयु ,बुद्धि, बल और नीति में सबसे श्रेष्ठ होने के कारण वे ही सब को उचित सम्मति देते थे।
वानर जब सीता को ढूंढने निकले और समुद्र के तट पर हताश होकर बैठ गए तब जामवंत जी ने ही हनुमान जी को उनके बल का स्मरण दिला कर लंका जाने के लिए प्रेरित किया भगवान श्री राम के युद्ध काल में तो जैसे यह प्रधान सचिव ही थे सभी कार्य में भगवान इनकी सम्मति लेते और इनका आदर करते थे। भगवान अयोध्या लौट आए और राज्य अभिषेक के बाद सब को विदा करने लगे तब जामवंत जी ने अयोध्या से जाना तभी सरकार किया जब प्रभु ने उन्हें द्वापर में दर्शन देने का वचन दिया ।
जामवंत जी की इच्छा थी कि कोई मुझे द्वंद युद्ध में संतुष्ट करे लंका के युद्ध में रावण भी उनके सम्मुख टिक नहीं सका था ।
द्वापर में श्री कृष्ण चंद्र का अवतार हुआ द्वापर में द्वारका आने पर यादव श्रेष्ठ सत्राजित जिसने सूर्य की आराधना करके स्यमन्तक मणि प्राप्त की।
एक दिन श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा कि वह मणि महाराज उग्रसेन को दे दें। किंतु लोभ वश सत्राजित ने यह बात स्वीकार नहीं की ।
संयोगवश उस मणि को गले में बांधकर सत्राजित का भाई प्रसेनजित आखेट के लिए वन में गया और वहां उसे शेर ने खा लिया।
शेर मणि लेकर गुफा में गया तो जामवंत जी ने शेर को मार कर मणि ले ली और गुफा के भीतर अपने बच्चों को खेलने के लिए दे दी।
द्वारका में जो प्रसेनजित नहीं लौटा तब सत्राजित को शंका हुई कि श्री कृष्ण चंद्र ने मेरे भाई को मारकर मणि छीन ली है ।
धीरे-धीरे यह बात फैलने लगी इस अपयश को दूर करने के लिए भगवान श्री कृष्ण मणि का पता लगाने निकले वह मरे घोड़े को फिर मृत सिंह को देखते हुए जामवंत की गुफा में पहुंचे एक अपरिचित पुरुष को देख बच्चे की धार मां चिल्ला उठी जामवंत उस चिल्लाहट को सुन क्रोध में भर दौड़े ।
कृष्ण के साथ उनका द्वंद युद्ध होने लगा था ।
सत्ताइस दिन रात बिना विश्राम कि ये दोनों एक-दूसरे पर वज्र के समान आघात करते रहे अंत में जामवंत का शरीर मधुसूदन के प्रहारों से शिथिल होने लगा
जामवंत जी ने सोचा मुझे पराजित कर सके ऐसा कोई देवता या राक्षस तो हो नहीं सकता अवश्य ही यह मेरे भगवान श्रीराम ही हैं।
वे यह सोचकर रुक गए भगवान ने उसी समय उन्हें अपने धनुषधारी राम स्वरूप का दर्शन दिया जामवंत जी प्रभु के चरणों में गिर पड़े। श्री कृष्ण चंद्र ने अपना हाथ उनके शरीर पर फेरकर समस्त पीड़ा और क्लेश दूर कर दिया जामवंत ने अपनी कन्या जामवंती को श्री कृष्ण के चरणों में समर्पित किया और वह मणि भी दे दी इस प्रकार उन्होंने अपने जीवन को भगवान के चरणों में अर्पित कर दिया
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