हरे कृष्ण # भगवान के भक्त

                🪴श्रीसूरदासजीकी प्रार्थना🪴
               तुम तजि और कौन पै जाऊँ।
   काके द्वार जाइ सिर नाऊँ, पर हथ कहाँ बिकाऊ।
     ऐसो को दाता है समरथ, जाके दिये अघाऊँ।
   अंतकाल तुमरो सुमिरन गति, अनत कहूँ नहिं पाऊँ।।
  रंक अयाची कियो सुदामा, दियो अभय पद ठाऊँ।
     कामधेनु चिंतामनि दीनो, कलप- बृच्छ तर छाऊँ॥
  भवसमुद्र अति देखि भयानक, मनमें अधिक डराऊँ।
कीजै कृपा सुमिरि अपनो पन, सूरदास बलि जाऊँ।॥
               
                       ⚘⚘ करमैती बाई⚘⚘
पण्डित परशुरामजी जयपुरके अन्तर्गत खण्डेलाके
सेखावत सरदारके राजपुरोहित थे। इनकी पुत्री करमैतीका
मन बचपनसे ही भगवान् में लग गया था। वह बालिका
निरन्तर श्रीकृष्णका ध्यान तथा नाम-जप किया करती थी।
कभी वह 'हा नाथ! हा नाथ! कहकर क्रन्दन करती,
कभी कीर्तन करते हुए नाचने लगती और कभी हँसते-
हँसते लोटपोट हो जाती। नन्ही -सी बच्चीके भगवत्प्रेमको
देखकर घरके लोग प्रसन्न हुआ करते थे।                         ⚘ shayaripub.com ⚘
करमैतीकी इच्छा विवाह करनेकी नहीं थी; परंतु लज्जावश
वह कुछ कह नहीं सकी। पिताने उसका विवाह कर दिया;
लेकिन जब ससुरालवाले उसे लेने आये, तब वह व्याकुल
हो उठी। जो शरीर श्यामसुन्दरका हो चुका, उसे दूसरेके
अधिकारमें कैसे दिया जा सकता है! उसने अपने प्रभुसे
से प्रार्थना प्रारम्भ की और जो कातर होकर उन श्रीवृन्दावनचन्द्रको
पुकारता है, उसे अवश्य मार्ग मिल जाता है। करमैतीको
, एक उपाय सूझ गया। आधी रातको जब कि सब लोग
सो रहे थे, वह अकेली बालिका चुपचाप घरसे निकल पड़ी और
वृन्दावनके लिये चल पड़ी।

सबेरे घरमें करमैतीके न मिलनेपर हलचल मच गयी।
परशुराम पण्डित जानते थे कि उनकी पुत्री कितनी पवित्र है.
किंतु लोकलाजके भयसे अपने यजमान राजाके पास गये।
राजाने अपने पुरोहितकी सहायताके लिये चारों ओर घुड़्सवार
भेजे कि वे करमैतीको ढूँढ़ लावें । करमैती दौड़ी चली जा
क रही थी। रात्रिभरमें वह कितनी दूर निकल आयी, सो उसे
पता ही नहीं। सबेरा होनेपर भी वह भागी ही जा रही थी कि
उसने घोड़ोंकी टापका शब्द सुना। उसे डर लगा कि घुड़सवार
उसे ही पकड़ने आ रहे हैं। आस-पास न कोई वृक्ष था और
न कोई दूसरा छिपनेका स्थान; किंत् एक ऊँंट मरा पड़ा था
और रात्रिमें श्रगालोंने उसके पेटका भाग खा लिया था।
करमैतीकी दृष्टि ऊँटके पेटमें बनी कन्दरापर गयी । इस समय
वह सांसारिक विषयोंकी भयंकर दुर्गन्थसे भाग रही थी। मरे
ऊँटके शरीरसे निकलनेवाली गन्थ उसे विषयोंकी दर्गन्ध के
सामने तुच्छ जान पड़ी। भागकर वह ऊँटके पेटमें छिप गयी।
घुड़सवार पास आये तो दुर्गन्धके मारे उन्होंने उस ऊँटकी ओर
देखातक नहीं। वहाँसे शीघ्रतापूर्वक वे आगे बढ़ गये और
अन्तमें हताश होकर लौट गये। माता-पिता आदि भी पुत्रीके
सम्बन्धमें निराश हो गये।

जिसकी कृपासे विष अमृत हो जाता है, अग्नि शीतल
हो जाती है, उसीकी कृपावर्षा करमैतीपर हो रही थी। ऊँटके
, शरीरमें वह भूखी-प्यासी तीन दिन छिपी रही। उस सड़े
ऊँटके शरीरकी गन्ध उसके लिये सुगन्धमें बदल गयी थी।
चौथे दिन वह वहाँसे निकली। मार्ग उसका जाना हुआ नहीं
था; किंतु जो सबका एकमात्र मार्गदर्शक है, उसकी ओर
जानेवालेको मार्ग नहीं ढूँढ़ना पड़ता। मार्ग ही उसे ढूँढ़ लेता
; है। करमैतीको साथ मिल गया और वह वृन्दावन पहुँच गयी।
वहाँ पहुँँचकर मानो वह आनन्दके समद्रमें मग्न हो गयी।

जब परशुराम पण्डितको अपनी पुत्रीका कहीं पता न
लगा, तब वे वृन्दावन आये; लेकिन भला वृन्दावनमें करमैतीको
जानता-पहचानता कौन था कि पता लगता । एक दिन वृक्षपर
चढ़कर परशुराम पण्डित इधर उधर देख रहे थे । ब्रह्मकुण्ड पर
उन्हें एक वैरागिनी दिखायी पड़ी। वहाँ जानेपर उन्होंने देखा
कि साधुवेशमें करमैती ध्यानमग्न बैठी है । पुत्रीकी दीन- हीन
बाहरी दशा देखकर पिताको शोक तो हुआ; परंतु उसके
भगवत्प्रेमको देखकर वे अपनेको धन्य मानने लगे। कई घण्टे
बैठे रहनेपर भी जब करमैतीका ध्यान भंग नहीं हुआ, तब
पिताने उसे हिला-डुलाकर जगाया। वे उससे घर चलकर
भजन करनेका आग्रह करने लगे। करमैतीने कहा-'पिताजी!
यहाँ आकर भी कोई कभी लौटा है। मैं तो ब्रजराजकुमारके
प्रेमें डूबकर मर चुकी हूँ। अब मुर्दा यहाँसे उठे कैसे ?"

अन्तत: परशुरामजी उसके भक्तिभावको देखकर वापस
घर लौट गये। राजाने जब यह समाचार सुना, तब वह भी
करमैतीके दर्शन करने वृन्दावन आया। राजाके बहुत आग्रह
करनेपर करमैतीबाईने एक छोटी कृुटिया बनवाना स्वीकार
कर लिया। राजाने करमैतीबाईके लिये ब्रह्मकुण्डके पास एक
मठिया बना दी । करमैतीबाईकी भक्तिने राजाको भी भक्त बना
दिया।
                      Shayaripub.com 

                             कृष्ण भक्त  करमैती

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

चल छोड़,shayaripub.in

      अचलाएसगुलेरिया की कलम से                   चल छोड़ चल छोड़ छोड़ कहते कहते वह हमें छोड़ कर चले गए । दिल जिनके बक्से में रखा था वह त...