जय सियाराम # विनय पत्रिका

              ⚘⚘सुमिरु सनेह सहितसीतापति। ⚘⚘
               ⚘⚘रामचरन तजि नहिंन आनि गति॥ 1⚘⚘
                  ⚘⚘जय, तप, तीरथ, जोग समाधी।⚘⚘
              ⚘⚘ कलिमति बिकल, न कछ निरुपाधी ॥ 2⚘⚘
                    ⚘⚘ करतहुं सुकृत न पाप सिराहीं।⚘⚘  
                   ⚘⚘रकतबीज जिमि बाढ़त जाहीं ॥3⚘⚘
                      ⚘⚘हरति एकअध-असुर-जालिका⚘⚘
                    ⚘⚘तुलसिदास प्रभु-कृपा-कालिका।4⚘⚘
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रे मन! प्रेमके साथ श्रीजानकी- वल्लभ रामजीका स्मरण
कर क्योंकि  रामचन्द्रजीके चरणोंको छोडकर तुझेऔर कहीं गति नहीं है।
जप, तप, तीर्थ, योगाभ्यास, समाधि आदि साधन हैं; परन्तु
कलियुग में जीवोंकी बुद्धि स्थिर नहीं है इससे इन साधनोंमेंसे कोई भी
विघ्नरहित नहीं रहा ॥ २ ॥ आज पुण्य करते भी (बुद्धि ठिकाने न होनेसे)
पापों का नाश नहीं होता। रक्तबीज राक्षसकी भांति ये पाप तो बढ़ते ही जा रहे हैं। भाव यह है कि बुद्धिकी विकलतासे पापमें पुण्य-बुद्धि और पुण्यमें पाप-बुद्धि हो रही है, इससे पुण्य करते भी पाप ही बढ़ रहे हैं ॥ ३ हे
हे तुलसीदास ! इस पापरूपी राक्षसोंके समूह का नाश तो केवल प्रभुकी कृपारूपी कालिकाजी ही करेंगी। (भगवत्कृपाकी शरण लेनेके सिवा अब अन्य किसीसाधनसे काम नहीं निकलेगा) ॥ ४ ॥
 
हिन्दी शायरी दिल से 

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