हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गांव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
Shayaripub.in
साभार: कविता कोश
चलो सफर पर निकले साथ साथ
मेरे ख्यालों के हाथ में तेरे सपनों के हाथ
वंदिशों की किश्ती पतवार दूरियों की
समंदर खवाबों का लहरें मजबूरियों की
अहसास की परतों में आरजूओं की तपन
साँसों के आहट में विरह की अगन
तमन्नाओं में मेरी बसा तेरा बजूद
हवायें छू रही या तू भी है मौजूद
लगा कहीं तू भी है मौजूद
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चलो सफर पर निकले साथ साथ
मेरे ख्यालों के हाथ में तेरे सपनों के हाथ
वंदिशों की किश्ती पतवार दूरियों की
समंदर खवाबों का लहरें मजबूरियों की
अहसास की परतों में आरजूओं की तपन
साँसों के आहट में विरह की अगन
तमन्नाओं में मेरी बसा तेरा बजूद
हवायें छू रही या तू भी है मौजूद
लगा कहीं तू भी है मौजूद
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