श्रीकृष्णचन्द्र अपने सखा ग्वाल-बालोंकी मृत्युरूप अघासुरके
मुखसे रक्षा करके उन्हें यमुना-पुलिनपर ले
उनसे कहने लगे- "हे मेरे सखाओ! यह कालिंदी पुलिन
यमुनातट कितना सुरम्य है। यहाँ हमलोगोंके क्रीडा करने
योग्य समग्र सामग्री विद्यमान है। यहाँ गद्दे समान
अत्यन्त सुकोमल और स्वच्छ बालुका--यामुनरेणु विछी
है। वृक्षोंपर बैठे पक्षी अत्यन्त मधुर ध्वनि कर रहे हैं।
दूसरी ओर विकसित कमलोंकी सुगन्धसे आकृष्ट होकर
भ्रमर गुंजन कर रहे हैं। मानो ये पक्षी और मधुप हमारा
स्वागतगान कर रहे हैं ।
समय अधिक हो गया हैहमलोग क्षुधार्त्त भी हैं, सुतरां हमें यहीं भोजन कर लेना चाहिए
हमारे गोवत्स- बछड़े पासमें ही पानी पीकर
धीरे-धीरे घास चरते रहें
"चरन्तु
शनकैस्तृणम् ॥'
(श्रीमद्धा० १०।१३।६
श्रीठाकुरजीके प्रिय सखाओं ने कहा
कन्हैया भैया! ऐसा ही हो। तद्नन्तर उन्होने गोत्रों को
जल पिलाकर हरी-हरी घासोंमें छोड़ दिया।
समस्त सखा
श्रीभगवान् के सामने मण्डल बनाकर
बैठ गये। सबके मध्य में सबके प्यारे दुलारे, ऑँखोंके तारे श्रीकृष्णचन्द्रजी विराज रहे थे। सखाओंके नेत्र श्रीहरिके मुखको निहारकरआनन्दसे प्रफुल्लित हो रहे थे। यद्यपि सबका प्रभुकेसम्मुख होना सम्भव नहीं था तथापि श्रीहरिकी अचिन्त्यलीलाशक्तिने सबके सम्मुख सबके सामने लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्रको प्रकट कर दिया। व्रजेन्द्रन्दन श्रीकृष्णचन्द्रकामङ्गलमय मुखारविन्द प्रत्येक ग्वाल-बालकी ओर ही है।प्रत्येक सखाको प्रतीत हो रहा है--हमारा प्राणधन गोपालहमारी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टिसे देखकर स्नेह सौहार्द्र की अजस्त्रधारा प्रवाहित करते हुए अवस्थित है-
"सहोपविष्टा
विपिने
विरेजु-
यथाम्भोरुहकर्णिकाया: ॥
आज ग्वाल-बालोंके भोजनपात्र भी अनोखे ही हैं।
कुछने कमलके पत्र आदिको लेकर अपना भोजनपात्र निर्मित
किया है। कुछने पवित्र कदली-पत्रको भोजनपात्र बनाया है।
कुछ गवाल-बालोंने प्रक्षालित प्रस्तरखण्डोंको ही अपने सामनेभोजनपात्रके लिये स्थापित कर लिया है।
श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी मधुर वाणीसे कहा- हे समुज्ज्वल
निष्क-पदक धारण करनेवाले मेरे बन्धुओ! अपने-अपने
छीकों से सुन्दर सुस्वाद् भोजन -सामग्री निकालो-
भो भो भो भो उज्ज्वलनिष्का: निष्कासयत
भक्ष्य सामग्रीयमिति। ( श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पू)
आज ग्वाल-बालोंके भोजनपात्र भी अनोखे ही हैं।
कुछने कमलके पत्र आदिको लेकर अपना भोजनपात्र निर्मित
य है। कछने पवित्र कदली-पत्रको भोजनपात्र बनाया है।
गवाल-बालोंने प्रक्षालित प्रस्तरखण्डोंको ही अपने सामने
भोजनपात्रके लिये स्थापित कर लिया है।
श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी मधुर वाणीसे कहा- हे समुज्ज्वल
निष्क-पदक धारण करनेवाले मेरे बन्धुओ! अपने-अपने
छीकों सुन्दर सुस्वाद् भोजन -सामग्री निकालो-
भो भो भो भो उज्ज्वलनिष्का: निष्कासयत
भक्ष्य सामग्रीयमिति। ( श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पू)
अपने प्राणसखा श्रीकृष्णचन्द्रके स्रेहिल वचनोंको
सुनकर सबने अपने अपने छींकेसे दही, भात, मीठा
मोदक, नमकीन, बड़ा, शाक भाजी, चटनी,
मुरब्बा, पायस आदि अनेक प्रकारके व्यअ्अन निकाले
और उन्हें पत्तों और पत्थरोंका पात्र बनाकर भोजन करने
लगे। सभी अपने- अपने भोजनोंके स्वादका वर्णन करते
थे। इस प्रकार हँसते -हँसाते भोजनानन्दका सब आनन्द
ले रहे थे। इस प्रकार सुखसागरमें निमग्र बालकवृन्द
भोजन करते हुए असीम आनन्दमें विभोर थे। स्वयं
करुणा-वरुणालय जगदीश्वररूपमें नित्य वर्तमान हैं, उनके सुखकी सीमाहो ही कैसे
सकती है ?
आकाशपथ विमानोंसे परिपूर्ण हो गया है। इस
अभृतपूर्व अप्रतिम मनोहर छविका दर्शन देवसमाज अपने
सहज निमेषोन्मेषरहित अपलक नेत्रोंसे- अतृप्त नेत्रोंसे कर
रहा है। सर्वयज्ञभोक्ताका यह भोजन- ऐसा वात्सल्य-
रससम्पुटित स्वच्छन्द भोजनकालीन विहार क्या बार-बार
देखनेको मिल सकता है ?
भक्त प्रहलाद
हिरण्यकशिपु नामक एक प्रतापी दैत्य था। घोर तप करके उसने ब्रह्माजीसेदान प्राप्त कर लिया था कि मैं न मनुष्यसे मरू न पशुसे; न दिनमें मरूँरातमें; न घरमें मरू न बाहर और अस्त्र-शस्त्रसे भी न मरूँ!' यह वरदान पाकर उसने सभी देवताओंको जीत लिया। उसके अत्याचारसे तीनों लोक कांपने लगे। वह किसीको यज्ञ, जप, तप, भजन-पूजन नहीं करने देता था।
इसके पुत्र प्रह्लाद बड़े भगवद्भक्त थे। इसलिये वह नाना प्रकारके कष्ट देकर प्रहलादजीको मार डालनेका प्रयत्न करने लगा; परन्तु जब उसके सारे प्रयत्न निष्फल हो गये, तब प्रहलादजीको खम्भेमें बाँधकर उन्हें मारनेके लिये तलवार उठाकर बोला--'कहाँ हैं तेरे भगवान् ! अब आकर वे तुझे बचावें तो देखूँ। प्रहलादजीने कहा- ' भगवान् तो सर्वत्र हैं। वे मुझमें, आपमें, तलवारमें और इस खम्भेमें भी हैं। इतना सुनते ही हिरण्यकशिपुने खम्भेपर एक घूँसा मारा।उसी समय खम्भेको फाड़कर भयंकर शब्द करते हुए नृसिंहभगवान् प्रकट हो
गये। उनका शरीर मनुष्यका और मुख सिंहका था। हिरण्यकशिपुको दरवाजेपरघसीटकर भगवान् ले गये और अपनी जाघोंपर पछाड़कर नखसे उसका पेट फाड़ दिया। हिरण्यकशिपुको मारकर भगवान् दैत्योंका राजा प्रहलादको बनादिया!
हिरण्यकशिपु नामक एक प्रतापी दैत्य था। घोर तप करके उसने ब्रह्माजीसेदान प्राप्त कर लिया था कि मैं न मनुष्यसे मरू न पशुसे; न दिनमें मरूँरातमें; न घरमें मरू न बाहर और अस्त्र-शस्त्रसे भी न मरूँ!' यह वरदान पाकर उसने सभी देवताओंको जीत लिया। उसके अत्याचारसे तीनों लोक कांपने लगे। वह किसीको यज्ञ, जप, तप, भजन-पूजन नहीं करने देता था।
इसके पुत्र प्रह्लाद बड़े भगवद्भक्त थे। इसलिये वह नाना प्रकारके कष्ट देकर प्रहलादजीको मार डालनेका प्रयत्न करने लगा; परन्तु जब उसके सारे प्रयत्न निष्फल हो गये, तब प्रहलादजीको खम्भेमें बाँधकर उन्हें मारनेके लिये तलवार उठाकर बोला--'कहाँ हैं तेरे भगवान् ! अब आकर वे तुझे बचावें तो देखूँ। प्रहलादजीने कहा- ' भगवान् तो सर्वत्र हैं। वे मुझमें, आपमें, तलवारमें और इस खम्भेमें भी हैं। इतना सुनते ही हिरण्यकशिपुने खम्भेपर एक घूँसा मारा।उसी समय खम्भेको फाड़कर भयंकर शब्द करते हुए नृसिंहभगवान् प्रकट हो
गये। उनका शरीर मनुष्यका और मुख सिंहका था। हिरण्यकशिपुको दरवाजेपरघसीटकर भगवान् ले गये और अपनी जाघोंपर पछाड़कर नखसे उसका पेट फाड़ दिया। हिरण्यकशिपुको मारकर भगवान् दैत्योंका राजा प्रहलादको बनादिया!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें